कमल शर्मा( ब्यूरो चीफ) हरिहर समाचार
ऋषिकेश, मायाकुण्ड, श्रीभरत मिलाप आश्रम में चल रही श्रीमद्भागवत की कथा के पाँचवे दिन भगवान की बाल लीला, पूतना बध, शकट भञ्जन, तृणावर्त-दमन, अघासुरादि राक्षसों वध, गोवर्धन धारण,महारास, रुक्मिणी विवाह आदि की कथाएँ सम्पन्न हुईं।
आचार्य नारायण दास जी ने भगवान की बाल सुलभ शकट भञ्जन लीला के तथ्य को प्रकाशित करते हुए कहा, संसार के कार्यों और सामजिक उत्सवों में व्यस्त होकर, यदि हम भगवान को उपेक्षित करेंगे, तो हमारी जीवन रूपी गाड़ी पलट जायेगी। यह घर-परिवार सब भगवान की वाटिका, हम उसके माली हैं, मालिक नहीं।सदा भगवान को आगे रखकर, संसार के कार्य करने चाहिए।
बाल श्रीकृष्ण को नष्ट करने के लिए एक राक्षस तृणावृत का रूप लेकर उन्हें मारने आया, लेकिन वह मारा गया। यह एक प्रकार बवन्डर आँधी है जिसके आगे टिकना अत्यन्त दुष्कर होता है। हम सबके जीवन में भी आपत्ति- विपत्ति रूपी आंधी आती है, लेकिन धैर्यपूर्वक भगवान के नाम का सहारा लेकर, उसके वेग को सह लेना चाहिए, आगे का जीवन निश्चित ही भगवत्कृपा से मङ्गलमय होगा।
आचार्य जी ने बताया कि अघासुर एक विशाल अजगर के रूप में बाल श्रीकृष्ण को मारने आया, किन्तु वह अपने मन्तव्य जो कि पाप का स्वरूप है। नश्वरविषय पदार्थों का आकर्षण ही अघासुर है। जब मनुष्य पाप समूह से घिर जाता है, तो उसका उद्धार केवल भगवत्कृपा से ही सम्भव है।
कालिय नाग दमन की लीला के माध्यम से उसके रूपक पर प्रकाश डालते हुए कथा व्यास आचार्य जी ने उपदेशित किया कि मन ही सर्प है, जिसके दो विषैले दाँत ही राग और द्वेष हैं तथा यमुना का जल संसार है। जब भगवद्भजन के प्रताप से राग-द्वेष समाप्त हो जाता है तब यही मन अपने हृदय में नित निवास करने वाले भगवान का ध्यान करते हुए; परमानन्द को प्राप्त करता है। गोवर्धन लीला के माध्यम से भगवान ने प्रकृति के संरक्षण-संवर्धन की शिक्षा दी।
भगवान द्वारा की गयी महारास की लीला के आध्यत्मिक स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए, आचार्य जी ने कहा, जीव और ईश्वर के मिलन के प्रगाढ़ प्रेम की विमल गाथा ही रास है। भगवद्भक्ति से ओतप्रोत रस जिसके सामने ब्रह्मानन्द भी नतमस्तक है, वह हैं श्रीकृष्ण । रस के समूह को रास कहते हैं। यह महारास भगवत्प्रेम से ओत-प्रोत निष्काम भक्ति का एक दिव्य भाव है जो अनेक रसों के रूप में प्रकट होकर, जीव और ईश्वर के मिलन को दर्शाता है, इसमें भोक्ता और भोग्य दोनों ही भगवान हैं।
कथा व्यास आचार्य जी ने बताया कि सारी ब्रज गोपियाँ यथार्थ में ऋषि मुनि थीं, जो हजारों वर्षों तक तपस्या और ब्रह्म चिंतन करते रहने पर भी मन में बसी संसार की कामनाओं का दमन न कर सके, तो उसके दमन की कामना से गोपियों का अवतार लेकर गोकुल में आ बसे। जिसके मन में सांसारिक भोगों के सभी सुखों त्याग करके ईश्वर से मिलने की जो पवित्र भावना है, वही है गोपी भाव।
महारास लीला के आध्यात्मिक स्वरूप को प्रकट करते हुए, आचार्य जी ने बताया कि, माया के आवरण से रहित शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही ‘महारास’ है। गोपियों की वासना और अज्ञान के आवरण को हटाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने महारास से पूर्व ‘चीरहरण’ लीला की थी। चीरहरण लीला द्वारा श्रीकृष्ण ने गोपियों के वासना और अज्ञान रूपी वस्त्रों के आवरण को हटा दिया और शुद्ध-बुद्ध गोपियों के साथ महारास किया। जब जीव ईश्वर के वियोग में छटपटाता है, तभी जीव को ईश्वर मिलते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज में जो वेणुवादन किया तो उसकी ध्वनि दिव्य लोकों में पहुँचकर वहाँ के देवताओं को भी स्तम्भित कर देती है किन्तु रासलीला की बाँसुरी तो ईश्वर से मिलन के लिए आतुर अधिकारी जीव को ही सुनाई देती है। वंशी-ध्वनि क्या थी? यह भगवान का आह्वान था, जो अपनी समस्त इन्द्रियों के द्वारा केवल भक्तिरस का ही पान करे, वही गोपी है। जब ‘स्त्रीत्व’ तथा ‘पुरुषत्व’ की विस्मृति हो जाती है , उसके बाद ही गोपीभाव जागता है।
आज की कथा में महन्त स्वामी दुर्गा गिरि जी, माता साध्वी जी, कृष्णा देवी, संत राकेश दास, फलाहारी बाबा, पं गोविन्द जी, मनोज तिवारी, राकेश शर्मा, डाॅ० आदित्य कुमार पाण्डेय, डाॅ० सरोज पाण्डेय, वंश, दीपांशु जोशी, अलंकृत जी, रानी माँ तथा अनेक भक्त उपस्थित थे।