संत भगवान का साधक होता है उसे 99 का चक्कर नहीं होता:महामंडलेश्वर संजय गिरी महाराज

माया मरे ना मन मरे मर मर जाये शरीर अगर संत और साधक होकर भी तृष्ण में फंसे रहे तो सिर्फ 99 की साधना कर रहे हैं संत भगवान का साधक होता है उसे 99 का चक्कर नहीं होता महामंडलेश्वर संजय गिरी महाराज हरिद्वार 8 सितंबर 2024 कांगड़ी स्थित श्री प्रेम गिरी बनखंडी धाम में अपने श्री मुख से भक्तजनों के बीच ज्ञान की वर्षा करते हुए जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर परम पूज्य श्री संजय गिरी जी महाराज ने कहा साधक और संत कभी तेरा मेरा और 99 और 100 के बीच के अंतर में नहीं फसता साधक तो साधना मे लीन रहता है मानो आपको ₹1 रोज महंताना मिलता है आपने 99 दिन कार्य करके 99 रुपए अर्जित किया तो आपकी तृष्णा बढ़ती रहेगी कि कल ₹1 मिलते ही सो पूरे हो जाएंगे सों पूरे होने के बाद आप हजार पूरे करने के चक्कर में लगेंगे और हजार पूरे करने के बाद आप एक लाख पूरे करने के चक्कर में लगेंगे और एक लाख पूरे होने के बाद आप एक करोड़ पूरे करने के चक्कर में लगेंगे और एक करोड़ पूरे होने के बाद आप अरब रुपए के चक्कर में लगेंगे किंतु आपके मन की तृष्णा कभी ठहरेगी नहीं बढ़ती चली जायेगी जिसके पास अरबो है वह अब खरबो रुपया बनाने के चक्कर में अरे मूर्ख यह तो मन की तृष्णा है यह कभी मरेगी नहीं और प्रबल होती रहेगी इसलिए 99 का चक्कर छोड़ो और हरि भजन में पडो जो संत होकर साधक होकर ज्ञानी होकर इस लालसा में फंसे हैं उनका तो कोई ठोर नहीं हरि भजन भूल चुके हैं सिर्फ 99 याद है जो साधक होता है संत होता है उसे कभी 99 की तृष्णा नहीं रहती या तेरे मेरे की पहचान नहीं होती जिसे तेरा मेरा इसका इसका की पहचान है वह साधक नहीं सिर्फ व्यापारी है वह धर्म के क्षेत्र में व्यापार करने आया है यह शरीर मर जाता है किंतु मन और इसकी तृष्णा कभी नहीं मरती इसलिए जिसे ज्ञान और कल्याण के मार्ग पर भी तेरा मेरा इसका उसका की समझ है वह संत नहीं सिर्फ 99 की लालसा में फंसा एक अज्ञानी व्यक्ति है अगर कहीं कोई धर्म कर्म का कार्य हो रहा है कोई यज्ञ अनुष्ठान भंडारा हो रहा है और वहां तेरा मेरा अपना पराया देखा जा रहा है तो ऐसे धर्म-कर्म भंडारे का कोई मोल नहीं कोई फायदा नहीं वह सिर्फ व्यापार के लिए है एक धर्म का व्यापारी धर्म की आड़ में तेरा मेरा की लालसा में लगा है किंतु उसे धर्म कर्म से कोई लेना देना नहीं उसकी पूजा पाठ आस्था से कोई लेना देना नहीं जो सच्चे मन से करता है उसको पहचान करने की आवश्यकता नहीं की कौन मेरा है कौन पराया है अगर यह पहचान कर रहा है की कौन मेरा है और कौन पराया है इसको नहीं देना उसको नहीं देना सिर्फ इसको देना है तो यह फर्क एक व्यापारी ही कर सकता है साधक को इतनी चेतना नहीं होती वह तो सिर्फ अपने आराध्य की आराधना में लीन होता है उसमें अपने प्राये का कोई फर्क नहीं होता धर्म कर्म जाति वरण गरीब अमीर की पहचान करके नहीं किए जाते दरिद्र की सेवा जरूरतमंद की सेवा करने से नारायण प्रसन्न होते हैं अगर कोई ऐसा नहीं कर रहा है गरीब जनों को धर्म कर्म में रोक रहा है तो वह सिर्फ 99 की दौड़ में लगा है सिर्फ धर्म की आड मे व्यापार कर रहा है मनुष्य को दान भी योग्य साधक संत और ब्राह्मण और जरूरतमंद गरीबों को ही करना चाहिए अन्यथा अगर आप अयोग्य व्यक्ति को दान देते हैं तो उससे होने वाले पाप का भाग भी आपको ही भोगना पड़ेगा उससे जितने भी अनैतिक अयोग्य कार्य होंगे उसका दोषभी और उसका पाप भी आपको ही भोगना पड़ेगा जिस प्रकार एक महाकवि को मछुआरे को सूत दान देने के बाद नरक भोगना पड़ा था इसी प्रकार अयोग्य व्यक्ति को दान देने पर उसके द्वारा किए जाने वाला पाप आपके कुल का विनाश कर सकता है इसलिए सदैव याद रखें गुरु करें जानकर पानी पिये छान कर

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