जीवन और जगत को इन्द्रियों के ज्ञान से नहीं, अपितु आत्मा के द्वारा ही जाना और समझा जा सकता है- आचार्य नारायण दास जी

ऋषिकेश, मयाकुण्ड, श्रीभरत मिलाप आश्रम चलरही श्रीमद्भागवत कथा में मुख्यतः भगवान् के सभी विवाहों भौमासुर का वध एवं उसके द्वारा बन्दी बनाई 16000 स्त्रियों को मुक्त कराना। श्रीसुदामा चरित्र,यदुकुल को शाप और नौ विरक्त महापुरुषों द्वारा विदेहराज राजा निमि को उपदेश दिया जाना। आज कथा का छठवाँ दिवस था। आचार्य जी ने बताया कि राजा निमि जी ने अपनी सभा में पधारे हुए नौ योगियों के सामने कुछ विशेष प्रश्न पूछे- मनुष्य का परमकल्याण कैसे हो सकेगा? और किस साधन से यह सफल होगा तथा भागवतधर्म क्या है?

योगियों में प्रथम ने कहा- भगवान के चरणों का सर्वदा सर्वकाल में चिन्तन करना तथा उनकी उपासना करना ही मनुष्य के कल्याण का श्रेष्ठ मार्ग है।
चराचर सृष्टि भगवान् का स्वरूप है। ऐसी भावना के साथ-साथ मन,वचन और कर्म से निष्काम भाव से सदा सबकी सेवा करना ही भागवतधर्म है।
आचार्य जी ने भगवान श्रीकृष्ण जी ने प्यारे सखा श्रीउद्धव जी उस प्रकाश डालते हुए कहा, जीवन और जगत को इन्द्रियों के ज्ञान से नहीं, अपितु आत्मा के द्वारा ही जाना और समझा जा सकता है। यथार्थ ज्ञान तो आत्मा के प्रकाश से ही होता है। सच्चा आत्माबोध तभी होगा, जब जीवन में महापुरुषों का सत्सङ्ग प्राप्त होगा तब उनकी कृपा से हृदय में सत्य की प्रतिष्ठा होगी और मनमें निर्मलता बास करेगी।


योगियों में से एक ने सबसे उत्तम भगवान का भक्त उसे बताया जो अपना सारा समस्त कार्य और व्यवहार केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए करता है सर्वोत्म भक्त है। श्रीसुदामा चरित्र पर प्रकाश डालते हुए आचार्य जी ने कहा, मित्रता का मूल्यांकन धनादि से नहीं अपितु प्रगाढ़ प्रेम से होता है। आज अगर धन-ऐश्वर्य से सम्पन्न लोग अपने ग्राम और नगर के अर्थविपन्नादि से त्रस्त व्यक्ति को सम्मान देकर, उनकी विपन्नता को दूर करने का प्रयास सत्प्रयास करें, तो समाज में सर्वत्र खुशहाली और शान्ति का वातावरण छा जायेगा
आचार्य जी युदवंश को शापित होने के कारण को बताते हुए कहा, हमें अहंकार के वशीभूत होकर कभी भी छल-प्रपञ्च किसी को ठगना या अपमान और परिहास नहीं करना चाहिए और न किसी की व्यर्थ में परीक्षा लेनी चाहिर। ऐसा करने से करने वाला का सदा अकल्याण ही होता है।


आचार्य नारायण दास जी ने उपदेशित किया कि ज्ञान स्रोत आत्मा ही है। मनुष्य स्वयं ज्ञान का महासिन्धु है। बाहर कुछ भी नहीं सब कुछ मनुष्य के भीतर ही है। चिन्तन, मनन और विचार मन्थन से ज्ञान हमारे भीतर उसी प्रकार प्रकट हो जाता है जैसे अरणि मन्थन से काष्ठ में छिपी अग्नि। उद्धव जी को भगवान ने उपदेशित करते हुए कहा भगवत्ता का मूल्यांकन ऐश्वर्यादि की प्राप्ति से नहीं अपितु निष्काम भक्ति से अनुभव में आता है। ब्रह्म ज्ञान का फल है सर्वत्र भगवद्दर्शन और यथा योग्य सबकी सेवा करना।
आचार्य नारायण दास जी श्रोताओं से कहा भगवत्कथा के श्रवण से आप सब के स्वभाव में परिवर्तन अवश्य ही होना चाहिए। हम जहाँ भी प्रारब्ध बस जिस भी कार्य में संलग्न हैं वहाँ स्वार्थरहित और कर्तव्यबोध से कार्य का करने सहज ही चित्त शुद्ध हो जाता है। आज कथा में हरिद्वार से वयोवृद्ध परमवैष्णव संत श्रद्धेय महन्त श्याम चरण दास जी महाराज, माता साध्वी जी, पूज्य मौनी बाबा जी, सन्त राकेश दास जी, सन्त श्रीकरुणा शंकर जी, श्री विजय अधलक्खा श्री के० के० सतलेवाल, श्रीमती कश्मीरी सतलेवाल रोहित मिश्र, वंश डंगवाल, दुर्गेश चमोली, दीपांशु जोशी, आयुश नोटियाल, माता साध्वी जी, देवी रानी माँ, राकेश शर्मा, डाॅ आदित्य नारायण, डाॅ सरोज पाण्डेय, मनोज तिवारी आदि भक्त गण उपस्थित रहे।

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